चार्टर एक्ट 1793 (Charter Act 1793) :
1793 में चार्टर एक्ट को पारित किया गया। ये एक्ट लार्ड कार्नवालिस कार्यकाल के अंतिम दिनों में पारित हुआ था। 1773 में पारित हुए रेगुलेटिंग एक्ट तथा 1786 के पिट्स इण्डिया एक्ट में और सुधार कर 1793 में चार्टर एक्ट को पारित किया गया। इस एक्ट को ईस्ट इंडिया कंपनी एक्ट 1793 (East India Company Act 1793) के नाम से भी जाना जाता है।
इस एक्ट के महत्वपूर्ण बिन्दुओं को नीचे उल्लेखित किया गया है –
- इस अधिनियम ने भारत में ब्रिटिश क्षेत्रों पर कंपनी के शासन को जारी रखा।
- कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को अगले 20 वर्षों के लिए और आगे बढ़ा दिया गया, जबकि उस समय ब्रिटेन में कंपनी के भारत में व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने के लिए आवाजें उठने लगी थी।
- इस एक्ट से यह साफ कर दिया गया कि कंपनी के सभी राजनीतिक कार्य स्वतंत्र नहीं है बल्कि ब्रिटिश सरकार की ओर से हैं, कंपनी केवल क्राउन की प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है।
- कंपनी के डायरेक्टरों के लाभांश को 10% तक बढ़ाने की स्वीकृति दे दी गई थी।
- इस एक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल और उसकी परिषद के सदस्यों की सदस्यता की योग्यता की व्याख्या करते हुए कम से कम 12 वर्षों का भरत में रहने का अनुभव अनिवार्य कर दिया गया।
- प्रधान सेनापति, गवर्नर जनरल की परिषद का सदस्य नहीं बन सकता था, जब तक उसे नियंत्रण बोर्ड द्वारा विशेष रूप से नामित न किया जाए। इससे पहले के एक्ट के अनुसार वो परिषद का सदस्य था।
- 1786 के पिट्स इण्डिया एक्ट में गवर्नर-जनरल को अधिक अधिकार दिए गए थे, वह कुछ परिस्थितियों में अपनी परिषद के निर्णय को अस्वीकार कर सकता था। इस एक्ट में इस नियम को और परिभाषित किया गया, तथा यह साफ कर दिया गया कि गवर्नर-जनरल केवल शांति व्यवस्था, सुरक्षा एवं अंग्रेजी प्रदेशों के हित के विषयों पर ही परिषद के निर्णय को अस्वीकार कर सकता है, न्याय, विधि या कर सम्बन्धी मामलों में उसे यह अधिकार नहीं था।
- गवर्नर जनरल को यह अधिकार दिया गया कि जिस समय वो बंगाल से अनुपस्थित हो, वह अपनी परिषद के असैनिक सदस्यों में से एक उपाध्यक्ष को नियुक्त कर सकता है।
- नियंत्रण बोर्ड की संरचना में कुछ बदलाव कर दिए गए। इसमें एक अध्यक्ष और दो जूनियर सदस्य होने चाहिए। जूनियर सदस्य के लिए सम्राट की प्रिवी काउंसिल का सदस्य होने की बाध्यता को समाप्त कर दिया गया।
- नियत्रंण बोर्ड और कंपनी के सभी कर्मचारियों का वेतन अब कंपनी को ही भारतीय कोष से देना था। कंपनी के कर्मचारियों में भ्रष्टाचार का मुख्य कारण था कि उनका वेतन ब्रिटिश कोष से दिया जाता था जिस कारण वेतन कम था और नियमित रूप से दिया भी नहीं जाता था जिस कारण कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त रहते थे। इस एक्ट द्वारा इसका समाधान करने का प्रयास किया गया।
- सभी खर्चों के बाद, कंपनी को ब्रिटिश सरकार को सालाना भारतीय राजस्व से 5 लाख रुपये का भुगतान करना था।
- इस एक्ट में यह नियम बना दिया गया कि कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी बिना अनुमति के भारत नहीं छोड़ सकते थे, अगर वे ऐसा करते हैं तो इसे उनका इस्तीफा माना जाएगा।
- कंपनी को भारत में व्यापार करने के लिए व्यक्तियों और कंपनी के कर्मचारियों को लाइसेंस देने का अधिकार दिया गया था। इसे “विशेषाधिकार” या “देश व्यापार” के रूप में जाना जाता था।
- सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को और बढ़ा दिया गया।
- इस एक्ट को ब्रिटिश सरकार की विस्तार वादी नीति का सूचक माना जा सकता है। कंपनी ने अब भारतीयों के व्यक्तिगत अधिकारों और संपत्ति को भी नियंत्रित करना शुरू कर दिया।